मिर्ज़ा ग़ालिब || Galib ki sher o shayari || Shayari ||Shayari || Galib Ki shayari || Sher O Shayari || Sher ||

 

💥💥💥💥मिर्ज़ा ग़ालिब💥💥💥💥


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Sher O Shayari



होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है

 

इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है

 

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

 

कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

 

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

 

जिस को भी देखना हो कई बार देखना

 

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

 

ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

 

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

 

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

 

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

 

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए

 

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन

 

फिर इस के ब'अद थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर

 

दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता

 

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए

 

इतना सच बोल कि होठों का तबस्सुम न बुझे,

रोशनी ख़त्म न कर आगे अंधेरा होगा।

 

 

शौहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है

जिस डाल पर बैठे हो, वो टूट भी सकती है

 

मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला

अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला।

 

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कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं

मिला मुझको घर का पता देर से

दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे

मगर जो दिया वो दिया देर से

 

हुआ न कोई काम मामूल से

गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह

कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर

कभी घर में सूरज उगा देर से

 

कभी रुक गये राह में बेसबब

कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब

हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब

जहाँ भी गया मैं गया देर से

 

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है

यही है जुदाई, यही मेल है

मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक

बनी वो ख़मोशी, सदा देर से

 

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी

भरे जाम लगराई बरसात भी

रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी

जो होना था जल्दी हुआ देर से

 

भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी

मिली न कहीं से कोई रौशनी

छुपा था कहीं भीड़ में आदमी

हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से

 

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अपनी मर्ज़ी से कहाँ...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

 

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है

अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

 

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से

किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

 

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं

कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

 

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब

सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

 

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |

 

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आप हमें वो दिल मे छपाई हुईं पूरी बात बताओ

जिस का जिक्र किया था वो अधुरी बात बताओ

 

खैरियत तो हर एक मुलाकात पर पुछते रहते हो

कितनी मुहब्बत करते हो ये जरूरी बात बताओ

 

जानते हो आप भी हम आपको जान्ना चाहते हैं

जिंदगी के हर ईमतिहान की सारी बात बताओ

 

अपने बैचेनी में कितने सवाल पुछते हो आदि

हो सके तो आप भी मुहब्बत भरी बात बताओ।

 

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अहल-ए-दानिश को ख़बर क्या क्या है पागल का मिज़ाज

संग-बारों को है कब मालूम घायल का मिज़ाज

 

किस तरफ़ से है गुज़रना और बरसना है कहाँ

बस हवाओं को पता रहता है बादल का मिज़ाज

 

मेरे सर पर रह के भी मुझ पर न साया कर सका

मेरी क़िस्मत से कहाँ मिलता है आँचल का मिज़ाज

 

तुझ को पलकों में छुपा कर मैं परस्तिश कर तो लूँ

आँसुओं के साथ बह जाता है काजल का मिज़ाज

 

जितना भी चाहूँ निकलना डूबती जाती हूँ मैं

तेरी यादों में मिला है मुझ को दलदल का मिज़ाज

 

'मीना' सदियाँ आईं और तारीख़ बन कर रह गईं

लम्हा लम्हा जानता है मेरे हर पल का मिज़ाज

 

हम ज़ज्बात भी

निकाल कर रख दे तो

कोई नहीं पूछता

 

और वो नेल पोलिश पर भी

पोस्ट कर दे तो

जनसभा इकट्ठी हो जाती हैं..!

 

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दोस्ती का रिश्ता दो अंजानो को जोड देता है,

हर कदम पर जिन्दगी को नया मोड देता है,

सच्चा दोस्त साथ देता है तब

जब अपना साया भी साथ छोड देता है।

 

Galib Ki shayari

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हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं

कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं

 

तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो

तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं

 

वो ज़ुल्फ़ धूप में फ़ुर्क़त की आई है जब याद

तो बादल आए हैं और शामियाने हो गए हैं

 

जो अपने तौर से हम ने कभी गुज़ारे थे

वो सुब्ह ओ शाम तो जैसे फ़साने हो गए हैं

 

अजब महक थी मिरे गुल तिरे शबिस्ताँ की

सो बुलबुलों के वहाँ आशियाने हो गए हैं

 

हमारे बा'द जो आएँ उन्हें मुबारक हो

जहाँ थे कुंज वहाँ कार-ख़ाने हो गए हैं

 

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 Galib Ki shayari


रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए

धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

 

सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मय-कशी

थे ये ही दो हिसाब सो यूँ पाक हो गए

 

रुस्वा-ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम

बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए

 

कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर

पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

 

पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का

आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए

 

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला

की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

 

इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की ना'

दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए

 

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दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे

वर्ना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे

 

ऐ देखने वालो मुझे हँस हँस के न देखो

तुम को भी मोहब्बत कहीं मुझ सा न बना दे

 

मैं ढूँढ रहा हूँ मिरी वो शम्अ कहाँ है

जो बज़्म की हर चीज़ को परवाना बना दे

 

आख़िर कोई सूरत भी तो हो ख़ाना-ए-दिल की

काबा नहीं बनता है तो बुत-ख़ाना बना दे

 

'बहज़ाद' हर इक गाम पे इक सज्दा-ए-मस्ती

हर ज़र्रे को संग-ए-दर-ए-जानाना बना दे

 

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नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम


नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी

तो फिर दुनिया की परवाह क्यूँ करें हम


जो गुज़ारी न जा सकी हम से

हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है


जमा हम ने किया है ग़म दिल में

इस का अब सूद खाए जाएँगे


इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ

वरना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैंने

 

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी

वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा


बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक

ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी

 

यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे

इनाम तो अच्छा था मगर शर्त कड़ी थी

 Mirza Galib .

 

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